क्या कैंसर सचमुच उतना खतरनाक है जितना उसे समझ जाता है
कैंसर. यह शब्द सुनते ही उन लोगों की रग-रग थर्राने लगती है जो स्वास्थ्य को लेकर जागरूक हैं या उसके मामले में थोड़े बहुत भी सयाने हैं. हममें से हरेक ने कभी न कभी किसी जानकार को इस खौफनाक समझी जाने वाली बीमारी से जूझते देखा होगा और दुर्भाग्य से हममें से ज्यादातर को दुखद अनुभव भी हुआ होगा.
लेकिन क्या कैंसर सचमुच उतना खतरनाक है जितना उसे समझ जाता है या कैंसर के दुखद अनुभव के लिए हम ही जिम्मेदार हैं कि हमने इस भयावह बीमारी को को बड़ा हौवा बना लिया है. चाहे कोई बीमारी हो या जिंदगी के किसी भी काम में कोई बुराई या गलती हो, उसकी बहुत ज्यादा उपेक्षा की जाए, तो वह कहीं भी खतरनाक हो सकती है—फिर बात चाहे इंसानी शरीर की हो, किसी संगठन के कामकाज की या कोई प्रोजेक्ट डेवलप करने की.
कैंसर से बहुत ज्यादा डरने की जरूरत नहीं है. अगर हम अपनी मौजूदा जानकारी को देखें तो कैंसर के 90 प्रतिशत से ज्यादा मरीजों का फस्र्ट स्टेज में इलाज हो सकता है. सेकंड स्टेज में यह अनुपात करीब 70 प्रतिशत है, तीसरे चरण में 40 प्रतिशत और चौथे चरण में 10 प्रतिशत से भी कम रह जाता है. आजकल कई तरह के कैंसर को गंभीर लेकिन काबू में आने लायक बीमारी माना जाता है जिन्हें कैंसर के अलावा किसी भी दूसरे गंभीर रोगों की तरह दवाओं से कई साल तक काबू में रखा जा सकता है.
अक्सर देखा गया है कि एक तिहाई से ज्यादा कैंसर तंबाकू या उससे बने उत्पादों के सेवन की देन हैं जबकि एक तिहाई खान-पान और रहन-सहन या दूसरे सामाजिक कारकों से जुड़े हैं. इसलिए दुनियाभर में विभिन्न भौगोलिक स्थितियों में कैसर के स्वरूप और फैलाव में भिन्नता नजर आती है.
इसकी मुख्य वजह तंबाकू के सेवन की स्थानीय आदत, खान-पान के तरीके और सामाजिक-आर्थिक तथा रहन-सहन जैसे कारक होती है. इन कारकों की वजह से हमारे देश में इस समय दिखाई दे रहा अधिकतर कैंसर आसानी से दिखने वाली जगहों पर या अंगुली की पहुंच के भीतर होता है. लेकिन दुख की बात यह है कि शुरू में ही बीमारी का निदान करा लेने के सहज लाभ के बावजूद हमारे देश में 80 प्रतिशत से अधिक कैंसर रोगी थर्ड और फोर्थ स्टेज में इलाज के लिए आते हैं, और इस समय तक अधिकतर मामले लाइलाज हो जाते हैं. उसकी वजह से ही ये यह भ्रांति फैलती है कि कैंसर लाइलाज है.
सामान्य अज्ञानता या जानकारी की कमी, निरक्षरता, खराब सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और कैंसर के निदान और इलाज की क्वालिटी और मात्रा दोनों के हिसाब से सुविधाओं की भारी कमी जैसे कुछ कारणों से हमारे देश में कैंसर के मामले में माहौल इतना निराशाजनक है. उसे बदलने के लिए दृढ़ राजनैतिक और प्रशासनिक संकल्प की जरूरत है.
जिंदगी के उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए और पिछले करीब 35 साल में विभिन्न परिस्थितियों के दौरान जब भी लोगों को मेरे पेशे के बारे में पता लगा तो सबसे पहले कुछ आम सवाल हवा में उछलते रहे हैं, जैसे—कैंसर क्या है? क्या यह छूत का रोग है? यहां यह बता देना जरूरी है कि कैंसर संक्रामक रोग नहीं है, और कैंसर रोगी के साथ खाना खाने, सोने या पीने से यह बीमारी नहीं फैलती. कई लोग इसे खानदानी बीमारी मानते हैं. लेकिन कुछ कैंसर रोग ऐसे हैं जो परिवार की हिस्ट्री, खान-पान की आदतों या अन्य कारणों से विभिन्न सदस्यों में नजर आ सकते हैं. इनमें कोलन कैंसर है जो खान-पान की आदतों से होता है. ब्रेस्ट कैंसर मां और बेटी में आनुवंशिक कारणों से हो सकता है. सिर्फ 5 फीसदी कैंसर जनेटिक होते हैं.
कैंसर कोशिकाओं की बेलगाम, अनियमित और असामान्य वृद्धि है, जो शरीर के किसी भी हिस्से, ऊतक या अंग से शायद किसी ज्ञात अथवा या अब तक अज्ञात कारण से शुरू हो सकती है. यह शुरुआती कारण खत्म हो जाने के बाद भी जारी रह सकती है, जिसकी प्रवृत्ति आस-पास के सामान्य ऊतकों में घुसपैठ करने और रक्तवाहिकाओं में घुस जाने की है, जिससे यह रोग फेफड़ों, लीवर, दिमाग और हड्डियों जैसे कुछ अंगों या पूरे शरीर के हिस्सों में फैल जाता है. इसे मेटास्टेसिस कहते हैं. अगर इलाज न हो तो आखिरकार रोगी की मौत हो जाती है.
भारत में कैंसर की वजह, विकासशील देशों से कुछ अलग है. इनमें गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, कम उम्र में विवाह, बार-बार गर्भवती होना, गंदगी और सेहत को लेकर अनदेखी जैसे कारण प्रमुख हैं. यही नहीं, कैंसर से जुड़े लगभग एक-तिहाई मामले तंबाकू की वजह से तो एक तिहाई खान-पान की आदतों के कारण होते हैं. ग्लोबल इकोनॉमी की बात करें तो इसमें विकासशील देशों का पांच फीसदी हिस्सा है जबकि कैंसर के दो-तिहाई मामले इन्हीं देशों में होते हैं. इनमें से अधिकतर 80 फीसदी मामले तीसरी या चौथी स्टेज में होते हैं जबकि विकसित देशों में इसके उलट है.
यह कोई नया रोग नहीं है. आधुनिक विज्ञान में कैंसर के सही स्वरूप का जिक्र कोई 150 साल पहले होना शुरू हुआ. लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न कारणों और कारकों की वजह से कैंसर के रोगियों की निरंतर बढ़ती संख्या के कारण इस पर अधिक ध्यान जाने लगा है. आधुनिक जीवनशैली और तनाव तथा भाग-दौड़ भरी इस जिंदगी में हमें कुछ समय अपनी सेहत के लिए निकालना होगा. नहीं तो संकट सिर पर है.
लेखक प्रो. आर.के. ग्रोवर दिल्ली स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट्स ग्रुप के डायरेक्टर और सीईओ हैं.