सिद्धार्थ मुखर्जी लेखक अमेरिका के कोलंबिया यूनिवर्सिटी के कैंसर सेंटर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

भारतीय मूल के मुखर्जी इसके अलावा विश्वविद्यालय के चिकित्सा केंद्र में कैंसर फिजीशियन भी हैं। मुखर्जी ने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और हॉवर्ड मेडिकल स्कूल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़ाई की है।
कई मशहूर जर्नल और समाचार पत्रों में सिद्धार्थ लिखते रहे हैं। सिद्धार्थ कहते हैं, 'इस किताब की सचमुच आवश्यकता थी। यदि कोई एक व्यक्ति भी इसे पढ़ता, तब भी मैं यह किताब लिखता। क्योंकि मैं लोगों को इस बीमारी के बारे में इसी अंदाज में बताना चाहता था।'
इनकी द्वारा लिखी गई पुस्तक द एम्परर ऑफ ऑल मेलेडीज : ए बायोग्राफी ऑफ कैंसर’ पर प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार जीता था ।

यह किताब कैंसर पर लिखी गई है।इस किताब की  खास बात यह है कि यह किताब कैंसर के लक्षणों और बचाव पर नहीं है। सिद्धार्थ ने इसे आम जनमानस की नाजुक भावनाओं और बेबुनियाद आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए अत्यंत रोचक अंदाज में बुना है। पुस्तक ना सिर्फ कैंसर पी‍ड़‍ितों बल्कि उनके परिजनों की चिंताओं को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।
इस पुस्तक में सिद्धार्थ ने कैंसर की जुबानी कैंसर का इतिहास बयान किया है। सिद्धार्थ ने स्पष्ट भी किया कि 'यह किताब डॉक्टरों के लिए नहीं है। यह भाषा, प्रस्तुति और विषयवस्तु हर दृष्टि से मैंने एक आम इसांन को ध्यान में रखकर लिखी है।

सिद्धार्थ अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं, अगर टीबी 19 वीं सदी का सबसे भयावह रोग था तो कैंसर 20 वीं सदी का महारोग है। इसीलिए इसे पुस्तक के नाम में ही सभी रोगों का बादशाह (emperor) बताया गया है।
कैंसर का रोग कितना पुराना है?
सिद्धार्थ ने चिकित्सकीय जटिल शब्दों के बजाय अत्यंत ही सरल और सुरूचिपूर्ण ढंग से इस गंभीर रोग पर आकर्षक प्रस्तुति दी है। एक डरावने रोग की कठिन पड़ताल को भी किस्से, अनुभव और उदाहरणों के साथ इतना दिलचस्प बना दिया कि पुस्तक लोकप्रियता के शीर्ष पायदान पर पहुँच गई।
पुस्तक हमें बताती है कि भले ही कैंसर 20 वीं शताब्दी का रोग कहा जाता हो लेकिन सच यह है कि यह बीमारी मानव-सभ्यता के अस्तित्व के साथ ही मौजूद है। मिस्र में लगभग पाँच हजार वर्ष पुराने मानव-अवशेषों में कैंसर के प्रथम प्रमाण मिले थे। लगभग उसी समय से इस बीमारी पर विजय पाने के सुप्रयास होते रहे हैं। इससे संबंधित दिलचस्प प्रसंगों ने पुस्तक को एक अद्भुत पठनीयता प्रदान की है।
इस रोग का आरंभिक लिखित साक्ष्य करीब 1600 ईसा पूर्व का है लेकिन बाद के 2000 सालों में इसका कोई प्रमाण स्पष्ट नहीं मिलता। 19 वीं शताब्दी के मध्य से आधुनिक चिकित्सा-पद्धति के दौर में इस पर फिर से चर्चा शुरु हुई। जैसे-जैसे टीबी पर आधुनिक चिकित्सा ने विजय प्राप्त की, कैंसर का नाम एक डर बनकर लोगों के दिमाग पर छाने लगा।

लेखक अपनी पुस्तक में उन लोगों के योगदान को नहीं भूला जिन्होंने इस रोग से निजात पाने के लिए अहम प्रयास किए। महत्वपूर्ण बात यह नहीं कि उन्हें सफलताएँ कितनी हासिल हुई, बल्कि बड़ी बात यह है कि कितने ही डॉक्टरों ने अपने आपको, अपने संपूर्ण जीवन को इस बीमारी के ‍इलाज को खोजने में खत्म कर दिया। अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया।
अफसोस इस बात का है कि अब तक मानवता इस रोग से और ना इस रोग के भय से मुक्त हो सकी है जो आज भी व्यापक स्तर पर दुनिया भर में लोगों की जान ले रहा है। साल 2010 में ही अकेले अमेरिका में कैंसर ने छः लाख लोगों की जान ले ली और दुनिया भर में करीब 70 लाख लोगों को अपना शिकार बनाया।